31 अक्टूबर 2013.........आठ वर्ष पहले आज ही के दिन ...".वो " चली गई थी देह त्याग ..बिना किसी आडम्बर के ....चुप चाप ..नही होने दी खबर तब तक जब तक धुआं बन आकाश में समा नही गई ...अह्ह्ह!! बहुत यकीन था उसे उन हाथों की मजबूती पर ...उन आँखों की निगेहबानी पर ...उन एहसासों की पाकीजगी पर .......नही चाहती थी बांटना एक भी क्षण ..उस अंतिम वक्त का ....सौंप कर सब ...सुकूं से हो गई विलीन उसी में ...और देह मिट्टी में ....../ ना फूलों को टूटने दिया ना धागों को जलने दिया ...खामोश .ख़ामोशी में समा गई ...जो आज भी सुनती है ...कहती है .....हाँ .....'वो '
आज भी उसी घर में रहती है ...........
बहुत कुछ कहती थी .... कुछ कहती हैं ....ख़ामोशी की वह नदी आज भी बहती है ............
मेरा हर चिंतन अब भी कुछ कुछ समय के बाद मेरे सीधे -सादे दिनों की समाधि भंग करता रहता है ( सब्र-संतोष से जिंदगी के गलत मूल्यों के साथ की हुई सुलह उस समाधि की तरह होती है , जिसमें आयु अकारथ चली जाती है ),और मैं खुश हूँ , मैंने समाधि के चैन का वरदान नही पाया , भटकन की बेचैनी का शाप पाया है ........और मेरा सोलहवां वर्ष आज भी मेरे हर वर्ष में शामिल है .....सिर्फ अब इसका मुँह अजनबी नही रहा , सबसे अधिक पहचान वाला हो गया है . और अब इसे चोरी से दीवारें फांद कर आने की जरूरत नही रही ,यह हर विरोध के खुले बन्दों को पछाड़कर आता है -केवल बाहरी विरोध को नही , मेरी आयु के पचासवें वर्ष के विरोध को भी पछाड़कर , और उसके सब लक्षण अब भी उसी प्रकार है --जब भी इर्द-गिर्द का सब-कुछ , तन के कपड़ों की भांति रूह को तंग लगता है , होंठ जिंदगी की प्यास से खुश्क हो जाते है , आकाश के तारों को हाथ से छूने को जी करता है , और कोई अन्याय , चाहे दुनिया में किसी से , और कहीं भी हो , उसके विरुद्ध मेरी साँसों में आग सुलग उठती है .................
----रसीदी टिकट -------
1936 में पहली किताब पर डाक द्वारा इनाम आया ...एक दिन फिर डाकिया आया तो मेरे बचकाना ख्यालों ने फिर किसी पार्सल की या मनिआर्डर की तमन्ना कर ली और मेरे मुँह से निकला --आज फिर कोई इनाम आया है ........
ओ खुदा! उस वक्त मेरी तरफ देखकर मेरे बाप के मस्तक पर जिस तरह एक तेवर पड गया ,उसका एक गहरा कंपन मेरी हड्डियों में उतर गया . उस वक्त उस तेवर की मैंने पूरी अहमियत नही समझी थी , पर इतना समझ लिया था कि मेरे पिता जिस तरह की शख्सियत देखना चाहते थे , मैं अपने एक ही फिकरे से उससे बहुत छोटी हो गई थी . और समझ लिया कि ऐसी तमन्ना बहुत गलत बात होती है ...लेकिन ऐसी तमन्ना किसी लेखक को किस जगह से बहुत छोटा कर जाती है , यह बाद में समझा ....
वह तेवर मेरा निगेहबां बन गया ..मेरी नज़रसानी करता रहा ..और जब उसके अर्थ को मैंने पूरी तरह जान लिया तो मेरे पिता के मस्तक की जगह मेरा अपना मस्तक मेरा निगेहबां बन गया .......
आज मेरे माथे का तेवर मेरे माथे पर लिखा हुआ अलिफ़ है ..................
"ये लफ्ज़ मेरे होंठों की रौनक है
पर अर्थ-- मेरे हाथों का हावका है
मेरे माथे का तेवर एक खोये हुए अक्षर की गवाही है ..............
{२}
एक अक्षर हमारी तहज़ीब के घर से चोरी हो गया ....यह वही अक्षर है ..जो आदि-बिंदु के कंपन से पैदा हुआ था ......
हमारे वेद इसी अक्षर का विर्द गाते हैं ......
वक्त की आत्मा से यह अक्षर खो जाता है , तो वक्त -वक्त के कालिदास पैदा होते हैं.....
सियासत की आत्मा से यह अक्षर खो जाता है , तो वक्त -वक्त के प्लेटो पैदा होते हैं.....
समाज की आत्मा से यह अक्षर खो जाता है , तो वक्त -वक्त के मार्क्स पैदा होते हैं ....
चिंतन की आत्मा से यह अक्षर खो जाता है , तो वक्त -वक्त के व्यास और विवेकानंद पैदा होते हैं ......
यही दर्द था , मैंने तडपकर लिखा :
मैं कोठरी दर कोठरी
रोज़ सूरज को जन्म देती हूँ
और रोज़ यह सूरज यतीम होता है ...
मैं मानती हूँ कि लेखक अपने समाज की चेतनता का नाम है ....
लेकिन दुनिया में जिस तरह जिस्मों का व्यपार होता है , उसी तरह अक्षरों का भी व्यपार होता है --- जाति के नाम पर , कौम के नाम पर , मजहब के नाम पर, समाज के नाम पर , और सियासत के नाम पर ......
मेरी नज़र में ---- मकसद की मंजिल पर पहुँचने के लिए मसला दायें और बाएं का नही है -- मसला केवल प्यार और व्यपार का है कि कौन अक्षरों को प्यार करते हैं और कौन अक्षरों का व्यपार करते हैं ....
कलम का कर्म अनेक -रूप होता है :
वह बचकाना शौक़ से निकले तो जोहड़ का पानी हो जाता है
सिर्फ पैसे कि कामना में से निकले तो नकली माल हो जाता है
अगर सिर्फ शोहरत कि लालसा में से निकले , तो कला का कलंक हो जाता है
अगर बीमार मन में से निकले तो ज़हरीली आबो-हवा हो जाता है
अगर किसी सरकार की खुशामद में से निकले , तो जाली सिक्का हो जाता है ...
और कला कर्म जब चेतना बनता है , चिंतन बनता है , तो जिंदगी का चमत्कार हो जाता है ...वह इस मिट्टी की आत्मा बन जाता है , वह अपने लोगों की , उनके दुःख-सुख की आवाज़ बन जाता है .....
आवाज़ --- जो इंसान की इंसानियत तक पहुंचे .....
आवाज़ --- जो समाज के जमीर तक पहुंचे ......
आवाज़ --- जो वक्त के कानून तक पहुंचे .........
कुछ किताबें असल में एक आईना बन जाती हैं जिस आईने में हम खुद को पहचानते है ......
{३}
मोहब्बत और मजहब दो ऐसी घटनाएं हैं ----ऐसी अलौकिक घटनाएं ---इलाही घटनाएं , जो लाखों लोगों में से किसी एक के साथ घटित होती हैं .........
जिस तरह मोहब्बत की घटना कभी बाहर से नही होती ---भीतर से होती है ,अन्तर से होती है , उसी तरह मज़हब की घटना कभी बाहर से नही होती . भीतर से होती है , अन्तर से होती है और जिस तरह दुनिया -भर की दौलत , जो किसी को कुछ भी बना सकती है , लेकिन किसी को आशिक नही बना सकती , उसी तरह दुनिया की कोई ताकत किसी की आत्मा को खुदाई ताकत नही दे सकती , खुदाई बख्शीश नही दे सकती , लेकिन हमारे इतिहास का दुखांत यह है कि हर मज़हब अपनी ताकत अपने भीतर से लेने की जगह बाहर से लेता है ..........
---------अमृता इमरोज़ ..........
जिंदगी
छह कदम पूरे और एक आधा
जेल की एक कोठरी
कि इंसान बैठ-उठ सके
और आराम से सो भी सके ....
'ईश्वर ' एक बासी रोटी
'सब्र' अधपका सालन
चाहे जी भरकर
वह दोनों जून खा ले .....
और जेल के अहाते में
एक जोहड़ 'ज्ञान 'का
कि इंसान हाथ-मुँह धो के
(और कुछ मच्छर छानकर )
वह अंजुरी भर पी ले ...
रूह का एक जख्म
एक आम रोग है ....
जख्म कि नग्नता से
जो बहुत शर्म आये
तो सुपने का टुकड़ा फाड़कर
उस जख्म को ढांप ले ....
इस जेल की यह बात
कोई कभी ना करता
और कोई कभी ना कहता
कि दुनिया की हर बगावत
एक ज्वर की तरह चढती
ज्वर चढ़ते और उतर जाते -----
अगर कभी इंसान को
आशा का कैंसर ना होता ~~~
---अमृता --
{कागज ते कैनवास }